Wednesday, March 21, 2012

एक ऐसा शासक, जिसके सामने अंग्रेजों ने हरबार टेक दिए घुटने

एक ऐसा भारतीय शासक जिसने अकेले दम पर अंग्रेजों को नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया था। इकलौता ऐसा शासक, जिसका खौफ अंग्रेजों में साफ-साफ दिखता था। एकमात्र ऐसा शासक जिसके साथ अंग्रेज हर हाल में बिना शर्त समझौता करने को तैयार थे। एक ऐसा शासक, जिसे अपनों ने ही बार-बार धोखा दिया, फिर भी जंग के मैदान में कभी हिम्मत नहीं हारी।


इतना महान था वो भारतीय शासक, फिर भी इतिहास के पन्नों में वो कहीं खोया हुआ है। उसके बारे में आज भी बहुत लोगों को जानकारी नहीं है। उसका नाम आज भी लोगों के लिए अनजान है। उस महान शासक का नाम है - यशवंतराव होलकर। यह उस महान वीरयोद्धा का नाम है, जिसकी तुलना विख्यात इतिहास शास्त्री एन एस इनामदार ने 'नेपोलियन' से की है। भास्कर नॉलेज पैकेज के अंतर्गत आज हम आपको इसी वीर योद्धा के बारे में बताने जा रहे हैं।

पश्चिम मध्यप्रदेश की मालवा रियासत के महाराज यशवंतराव होलकर का भारत की आजादी के लिए किया गया योगदान महाराणा प्रताप और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से कहीं कम नहीं है। यशवतंराव होलकर का जन्म 1776 ई. में हुआ। इनके पिता थे - तुकोजीराव होलकर। होलकर साम्राज्य के बढ़ते प्रभाव के कारण ग्वालियर के शासक दौलतराव सिंधिया ने यशवंतराव के बड़े भाई मल्हारराव को मौत की नींद सुला दिया।

इस घटना ने यशवंतराव को पूरी तरह से तोड़ दिया था। उनका अपनों पर से विश्वास उठ गया। इसके बाद उन्होंने खुद को मजबूत करना शुरू कर दिया। ये अपने काम में काफी होशियार और बहादुर थे। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1802 ई. में महज 26 वर्ष की आयु में इन्होंने पुणे के पेशवा बाजीराव द्वितीय व सिंधिया की मिलीजुली सेना को मात दी और इंदौर वापस आ गए।

इस दौरान अंग्रेज भारत में तेजी से अपने पांव पसार रहे थे। यशवंत राव के सामने एक नई चुनौती सामने आ चुकी थी। भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद कराना। इसके लिए उन्हें अन्य भारतीय शासकों की सहायता की जरूरत थी। वे अंग्रेजों के बढ़ते साम्राज्य को रोक देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने नागपुर के भोंसले और ग्वालियर के सिंधिया से एकबार फिर हाथ मिलाया और अंग्रेजों को खदेड़ने की ठानी। लेकिन पुरानी दुश्मनी के कारण भोंसले और सिंधिया ने उन्हें फिर धोखा दिया और यशवंतराव एक बार फिर अकेले पड़ गए।

उन्होंने अन्य शासकों से एकबार फिर एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का आग्रह किया, लेकिन किसी ने उनकी बात नहीं मानी। इसके बाद उन्होंने अकेले दम पर अंग्रेजों को छठी का दूध याद दिलाने की ठानी। 8 जून 1804 ई. को उन्होंने अंग्रेजों की सेना को धूल चटाई। फिर 8 जुलाई, 1804 ई. में कोटा से उन्होंने अंग्रेजों को खदेड़ दिया।

11 सितंबर, 1804 ई. को अंग्रेज जनरल वेलेस्ले ने लॉर्ड ल्युक को लिखा कि यदि यशवंतराव पर जल्दी काबू नहीं पाया गया तो वे अन्य शासकों के साथ मिलकर अंग्रेजों को भारत से खदेड़ देंगे। इसी मद्देनजर नवंबर, 1804 ई. में अंग्रेजों ने दिग पर हमला कर दिया। इस युद्ध में भरतपुर के महाराज रंजित सिंह के साथ मिलकर उन्होंने अंग्रेजों को उनकी नानी याद दिलाई। यही नहीं इतिहास के मुताबिक उन्होंने ३क्क् अंग्रेजों की नाक ही काट डाली थी।

अचानक रंजित सिंह ने भी यशवंतराव का साथ छोड़ दिया और अंग्रजों से हाथ मिला लिया। इसके बाद सिंधिया ने यशवंतराव की बहादुरी देखते हुए उनसे हाथ मिलाया। अंग्रेजों की चिंता बढ़ गई। लॉर्ड ल्युक ने लिखा कि यशवंतराव की सेना अंग्रेजों को मारने में बहुत आनंद लेती है। इसके बाद अंग्रेजों ने यह फैसला किया कि यशवंतराव के साथ संधि से ही बात संभल सकती है। इसलिए उनके साथ बिना शर्त संधि की जाए। उन्हें जो चाहिए, दे दिया जाए। उनका जितना साम्राज्य है, सब लौटा दिया जाए। इसके बावजूद यशवंतराव ने संधि से इंकार कर दिया।

वे सभी शासकों को एकजुट करने में जुटे हुए थे। अंत में जब उन्हें सफलता नहीं मिली तो उन्होंने दूसरी चाल से अंग्रेजों को मात देने की सोची। इस मद्देनजर उन्होंने 1805 ई. में अंग्रेजों के साथ संधि कर ली। अंग्रेजों ने उन्हें स्वतंत्र शासक माना और उनके सारे क्षेत्र लौटा दिए। इसके बाद उन्होंने सिंधिया के साथ मिलकर अंग्रेजों को खदेड़ने का एक और प्लान बनाया। उन्होंने सिंधिया को खत लिखा, लेकिन सिंधिया दगेबाज निकले और वह खत अंग्रेजों को दिखा दिया।

इसके बाद पूरा मामला फिर से बिगड़ गया। यशवंतराव ने हल्ला बोल दिया और अंग्रेजों को अकेले दम पर मात देने की पूरी तैयारी में जुट गए। इसके लिए उन्होंने भानपुर में गोला बारूद का कारखाना खोला। इसबार उन्होंने अंग्रेजों को खदेड़ने की ठान ली थी। इसलिए दिन-रात मेहनत करने में जुट गए थे। लगातार मेहनत करने के कारण उनका स्वास्थ्य भी गिरने लगा। लेकिन उन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और 28 अक्टूबर 1806 ई. में सिर्फ 35 साल की उम्र में वे स्वर्ग सिधार गए।

इस तरह से एक महान शासक का अंत हो गया। एक ऐसे शासक का जिसपर अंग्रेज कभी अधिकार नहीं जमा सके। एक ऐसे शासक का जिन्होंने अपनी छोटी उम्र को जंग के मैदान में झोंक दिया। यदि भारतीय शासकों ने उनका साथ दिया होता तो शायद तस्वीर कुछ और होती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और एक महान शासक यशवंतराव होलकर इतिहास के पन्नों में कहीं खो गया और खो गई उनकी बहादुरी, जो आज अनजान बनी हुई है।






SOURCE:http://www.bhaskar.com/article/

Friday, March 16, 2012

दासी भारमली

आपने जोधपुर की रूठी रानी के बारे में पढ़ते हुए उसकी दासी भारमली का नाम भी पढ़ा होगा | जैसलमेर की राजकुमारी उमादे जो इतिहास में रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध है अपनी इसी रूपवती दासी भारमली के चलते ही अपने पति जोधपुर के शक्तिशाली शासक राव मालदेव से रूठ गई थी और मालदेव के लाख कोशिश करने के बाद भी वह आजीवन अपने पति से रूठी ही रही |

जोधपुर के राव मालदेव का विवाह जैसलमेर के रावल लूणकरणजी की राजकुमारी उमादे के साथ हुआ था | सुहागरात्रि के समय उमादे को श्रृंगार करते देर हो गई तो उसने अपनी दासी भारमली को कुछ देर के लिए मालदेव जी का जी बहलाने के लिए भेजा | भारमली इतनी सुन्दर थी कि उसके रूप लावण्य को देख नशे में धुत मालदेव जी अपने आप को न बचा सके |

श्रृंगार करने के बाद जब उमादे आई और उसने मालदेव जी भारमली के साथ देखकर यह कहकर वापस चली गयी कि ये पति मेरे लायक नहीं है | और वो जीवन भर रूठी ही रही | राव मालदेव ने जोधपुर आने के बाद अपने एक कवि आशानन्द जी बारहट को रानी को मनाने भेजा पर वे भी रानी मनाने में असमर्थ रहे | इस पर कवि आशानन्द जी बारहट ने जैसलमेर के रावत लूणकरणजी से कहा कि अपनी पुत्री का भला चाहते है तो दासी भारमली को जोधपुर से वापस बुलवा लीजिए |

रावत लूणकरण जी ने एसा ही किया और भारमली को उन्होंने जोधपुर से जैसलमेर बुलवा भेजा पर स्वयम लूणकरण जी भारमली के रूप और लावण्य पर मुग्ध हो गए जिससे लूणकरण जी की दोनों रानियाँ ने परेशान होकर भारमली को जैसलमेर से हटाने की सोची | लूणकरण जी की पहली रानी सोढ़ी जी ने उमरकोट अपने भाइयों से भारमली को ले जाने के लिए कहा लेकिन उमरकोट के सोढों ने लूणकरण जी से इस बात पर शत्रुता लेना उचित नहीं समझा |तब लूणकरण जी की दूसरी रानी जो जोधपुर के मालानी परगने के कोटडे के शासक बाघ जी राठौड़ की बहन थी ने अपने भाई बाघ जी को बुलाया |
बहन का दुःख मिटाने हेतु बाघजी शीघ्र आये और रानियों के कथनानुसार भारमली को ऊंट पर बैठकर जैसलमेर से छिपकर भाग आये | लूणकरण जी कोटडे पर हमला तो कर नहीं सकते थे क्योंकि पहली बात तो ससुराल पर हमला करने में उनकी प्रतिष्ठा घटती और दूसरी बात राव मालदेव जैसा शक्तिशाली शासक मालानी का संरक्षकथा | अत: रावत लूणकरण जी ने जोधपुर के ही कवि आशानन्द जी बारहट को कोटडा भेजा कि बाघजी को समझाकर भारमली को वापस ले आये |

दोनों रानियों ने बाघ जी को पहले ही सन्देश भेजकर सूचित कर दिया कि वे बारहट जी की बातों में न आना | जब बारहट जी कोटडा पहुंचे तो बाघजी ने उनका बड़ा स्वागत सत्कार किया और बारहट जी की इतनी खातिरदारी की कि वे अपने आने का उद्देश्य ही भल गए | एक दिन बाघजी शिकार पर गए ,बारहट जी व भारमली भी साथ थे | भारमली व बाघजी में असीम प्रेम हो गया था अत: वह भी किसी भी हालत में बाघजी को छोड़कर जैसलमेर नहीं जाना चाहती थी | शिकार के बाद भारमली ने सूलें सेंक कर खुद विश्राम स्थल पर बारहट जी दी व शराब आदि भी पिलाई | इससे खुश होकर व बाघजी व भारमली के बीच प्रेम देखकर बारहट जी का भावुक-कवि- हृदय बोल उठा -

जंह गिरवर तंह मोरिया, जंह सरवर तंह हंस |
जंह बाघा तंह भारमली ,जंह दारु तंह मंस |

अर्थात जहाँ पहाड़ होते है वहां मोर होते है ,जहाँ सरवर होता है वहां हंस होते है इसी प्रकार जहाँ बाघ जी है वहीँ भारमली होगी ठीक उसी तरह जिस तरह जहाँ दारू होती है वहां मांस भी होता है |

बारहट की यह बात सुन बाघजी ने झट से कह दिया ,बारहट जी आप बड़े है और बड़े आदमी दी हुई वास्तु को वापिस नहीं लेते अत: अब भारमली को मुझसे न मांगना | आशानन्द जी बारहट पर वज्रपात सा हो गया लेकिन बाघजी ने बात सँभालते हुए कहा - कि आपसे एक प्रार्थना और है आप भी मेरे यहीं रहिये |
और इस तरह से बाघजी ने कवि आशानन्द जी बारहट को मनाकर भारमली को जैसलमेर ले जाने से रोक लिया | आशानन्द जी भी कोटडा रहे और उनकी व बाघजी जी की भी इतनी घनिष्ट दोस्ती हुई कि वे जिन्दगी भर बाघजी को भुला ना पाए | एक दिन अकस्मात बाघजी का निधन हो गया , भारमली बाघजी के शव के साथ चिता में बैठकर सती हो गई और आशानन्द जी अपने मित्र बाघजी की याद में जिन्दगी भर बैचेन रहे और उन्होंने बाघजी की स्मृति में अपने उदगारों के पीछोले बनाये |

साभार :रत्त्न सिंघ शेखावत

source:http://www.rajputana.ewebsite.com/


Thursday, March 8, 2012

Rajpoot Photos










मै राजपूत मै राजपूत

मैं राजपूत मैं राजपूत
मैं बलिदानों का हूँ प्रतिक मैं भारत माता का सपूत !
मैं राजपूत मैं राजपूत !!
मैने धरती के कागज पर असिधाराओ से लिखे लेख !
मैने अम्बर को लाल किया प्राची में उषाकाल देख !!
सूर्य चन्द्र की अग्नि में पूरित हें महातेज !
में सृष्टि के अवसान काल की विकट थिरकती प्रलय रेख !!
में महा ध्वंश का प्यासा भैरव महाकाल का अग्रदूत !
मैं राजपूत मैं राजपूत !!

मैने ब्रह्मा की शंख ध्वनि से धर्म और संस्कृति को सिखा !
भगवन विष्णु के प्रखर चक्र से वज्र कठोरता को सिखा !!
मैने प्रलयन्कर शिव से सिखा महा विनाश का मूल मंत्र !!
दानव राहू केतु से मैने अमर मृत्यु को है सिखा !!
बालक ध्रुव से अटल साधना ऋषियों से विध्या परमपुत !
मैं राजपूत मैं राजपूत !!

मेरे जौहर और शको से यमराज यहाँ खा गए मात !
जब कभी जली शमाँ तभी निज को कर दिया भष्मसात !!
सोमनाथ खानवा और हल्दीघाटी रणत भंवर में !
झुका जहाँ पर वहां वहां एक के लाख हाँथ !!
चित्तोड्दुर्ग से जीर्ण दुर्ग देते मेरे व्रत का सबूत !
मैं राजपूत मैं राजपूत !!

तुम जागीरो के गुर्गे यह शब्द कहा से आता है !
मेरे तो कानो में जब दुर्बल का रोदन जाता है !!
बस तड़फ शिराएँ उठती है मेरे दिल की तड़क तड़क !
फिर नही तोलता हानि लाभ कर्त्तव्य याद आ जाता है !!
जब मानवता के त्राण हेतु मैं रक्त बहत हूँ प्रभूत !
मैं राजपूत मैं राजपूत !!

बौखला उठा लंका सागर जब मेरे धनु पर तीर चढ़ा !
बन साधक मैने ताप किया झुक पड़ी विष्णु की गंगधारा !!
बैरी पर मेरी खडग उठी तब कांप उठी पाताल धरा !
बर्फीला काबुल पिघल गया मेरी भृकुटी थी प्रलयकार !!
बाबर के प्याले टूट पड़े बोले जय तेरी राजपूत !
मैं राजपूत मैं राजपूत !!


मैं महाशक्ति का ज्येष्ठ पुत्र शक्ति का सद उपयोग किया !
कब सिकंदर का बल के मद से इतराकर अनुकरण किया !!
भारत लुटा उसी वंश के गौरी को भी माफ़ किया !
दुर्बल विजितो पर कब नादिर बन मैने कत्ले आम किया !!
मैं दिव्य गुणों से ओत प्रोत में अजय वीर में देवदूत !
मैं राजपूत मैं राजपूत !!

फिर से शक्ति के मंदिर मैं नित पुष्प चढाने जाता हूँ !
निज शरीर की लोह कड़ी फौलादी करने जाता हूँ !!
वज्र कड़ी से मिला कड़ी दीप दीप से जला जला कार !
नए मार्ग से जीवन का इतिहास बनाने जाता हूँ !
कठिनाई आवे टूट पडूँगा राजपूत हूँ राजपूत !!
मैं राजपूत मैं राजपूत !!

Saturday, March 3, 2012

शेर और कुत्ते के बीच फर्क


कुत्ता :
कुत्तों की आदत होती है कि वे झुंड में रहकर अपना शिकार करते है।
बड़ी बुरी तरह से शिकार को नोचते खाते है।
कुत्ते अपना पेट मरे हुये जानवर की हड्डी के टुकडे से भी भर सकते है।
कुत्ते को जब भूख लगी होती है तो वह पूंछ हिलाकर आगे पीछे घूम कर अपने भोजन को लेने के चक्कर में रहता है।
जब उसे किसी प्रकार से भोजन नही मिलता है तो वह चोरी से भोजन लेने की फ़िराक में रहता है।
और जब उसे किसी तरह से भोजन नही मिलता है तो वह अपनी शक्ति को इकट्ठा करने के बाद खूंखार हो जाता है और फ़िर वह नही देखता है कि वह अपने मालिक को काट रहा है या अपने ही कुल को काट रहा है। 
शेर:
अक्सर शेर अकेले  शिकार करता है।
शेर आराम से अपने शिकार को  खाते है।
अक्सर जब शेर की ताकत क्षीण होने लगती है तो वह अपने को अपनी गुफ़ा के अन्दर समेट लेता है।
शेर जबरदस्ती में भी उसके शिकार पर अपना जीवन चलाने वाले कुत्तों के बीच में रहना पसंद नही करता है।
 शेर को चाहिये होता है अपने ही द्वारा मारे गये जानवर का ताजा मांस वह किसी के मारे हुये जानवर को भी अपना भोजन नही बनाता है।
शेर को  भूखा मरना पसंद है लेकिन वह किसी के मारे गये सड़े मांस को कभी नही खायेगा और किसी के द्वारा दिये गये सहानुभूति वाले भोजन को लेना तब तक पसंद नही करेगा जब तक कि उसे आदर पूर्वक भोजन नही दिया जाये। 
शेर कितना ही भूखा होगा वह अपने मालिक को नही काटेगा,वह अपने कुल को नही काटेगा,अपने को एकान्त मे लाकर पटक देगा और वहीं मर बेसक जायेगा,लेकिन किसी भी तरह से अपमान का भोजन ग्रहण नही करेगा।

अपने को राजपूत कहते हो ?

एक गांव में प्रतापनेर गद्दी के राजा भेष बदल कर गये और एक दरवाजे पर पडे तख्त पर बैठ गये। गांव राजपूतों का कहा जाता था। सभी अपने अपने नाम के आगे सिंह लगाया करते थे। घर के मर्द सभी खेती किसानी और अपने अपने कामो को करने के लिये गांव से बाहर गये थे। कोई भी दरवाजे पर पानी के लिये भी पूंछने के लिये नही आया। घर की बडी बूढी स्त्रियां बाहर निकली और घूंघट से देखकर फ़िर घर के भीतर चली गयीं,दोपहर तक वे जैसे बैठे थे वैसे ही बैठे रहे। दोपहर को घर के मर्द आये और उनसे पहिचान निकालने की बात की कि कौन और कहां से आये है क्या काम है आदि बातें कीं,जब उनकी कोई पहिचान नही निकली तो उन्होने भी कोई बात करने की रुचि नही ली और अपने अपने अनुसार घर के भीतर ही जाकर भोजन आदि करने के बाद फ़िर अपने अपने कामों को करने के लिये चले गये। राजा साहब शाम को अपने राज्य की तरफ़ प्रस्थान कर गये।
दूसरे दिन वे उसी गांव के पास वाले गांव में गये वहां के लोग भी अपने नाम के आगे सिंह लगाया करते थे। वे एक घर के बाहर पडे तख्त पर जाकर बैठ गये,जैसे ही वे तख्त पर बैठे घर से एक बच्चा निकला और उनके पैर छूकर घर के अन्दर वापस चला गया,घर से एक बुजुर्ग स्त्री निकली और एक दरी तथा तकिया लाकर उस तख्त पर बिछा दी। उसने जब तक दरी और तकिया लगायी तब तक वही बच्चा एक प्लेट में मिठाई और पानी लेकर आया,राजा साहब के आगे रखकर सिर नीचे करके खडा हो गया,राजा साहब ने प्लेट से एक टुकडा मिठाई का उठाया और खाकर पानी पिया और तकिया के सहारे आराम करने की मुद्रा में लेट गये। दोपहर को उस घर के मर्द काम धन्धे से वापस आये तो उन्हे तख्त पर लेटा देखकर घर के लोगों को डांटने लगे कि लकडी के तख्त पर केवल दरी ही क्यों बिछाई कोई गद्दा बिछाना चाहिये था। जल्दी से आकर उन्होने राजा साहब के नीचे गद्दा लगाया और उनके गांव आदि के बारे में कोई बात नही पूंछ कर भोजन के लिये गुहार की कि वे उनके साथ चल कर चौका में भोजन करें। राजा साहब ने उनके साथ चौका में भोजन के लिये पीढा पर बैठ गये और सभी लोगों के सामने भोजन आने का इन्तजार किया जैसे ही सभी लोगों के सामने भोजन की थालियां आ गयीं सभी लोगों ने पहले राजा साहब को भोजन करने के लिये प्रार्थना की,राजा साहब ने भोजन का ग्रास लेकर जैसे ही ग्रहण किया सभी घर के लोगों ने भोजन करना शुरु कर दिया। राजा साहब को भूख तो नही थी लेकिन जानबूझ कर वे काफ़ी समय तक भोजन करते रहे,जब तक उन्होने भोजन किया,तब तक घर के बाकी के मर्द खाना खा चुकने के बाद भी राजा साहब के भोजन को समाप्त करने का इन्तजार करने लगे,राजा साहब ने जैसे ही हाथ धोये,घर के बाकी के मर्दों ने भी अपने अपने हाथ धोकर भोजन समाप्त किया। राजा साहब को तम्बाकू पान और हुक्का आदि के लिये पूंछ कर और राजा साहब के मना करने पर उन लोगों ने उनके आने का कारण पूंछा कि वे कहां से आये है,और क्या काम है,राजा साहब ने अपने को गुप्त रखने के बाद बताया कि वे किसी रिस्ते की तलाश में जो उनकी लडकी के लिये मिले,कोई अच्छा घर और वर मिलने के बाद वे उनसे मिलेंगे,इतना कहकर वे अपने राज्य को वापस चले गये।
तीसरे दिन राजा साहब फ़िर से एक गांव में गये और किसी दरवाजे पर जाकर बैठ गये। उस गांव के लोग भी अपने अपने नामों के आगे सिंह लगाया करते थे। जैसे भी जाकर वे तख्त पर बैठे,दरवाजे पर बैठा एक वृद्ध व्यक्ति उनसे सवाल जबाब करने लगा,उनकी पहिचान को पूंछने लगा,उनकी जाति पांति के बारे में पूंछने लगा। राजा साहब ने अपने को छुपाते हुये कहा कि वे जाति से कोरी है,वह वृद्ध हडक कर बोला कि कोरी को हिम्मत कैसे हुयी कि वह उनके तख्त पर आकर बैठ गया,राजा साहब उसके दरवाजे से उठ कर अपने राज्य को वापस चले गये,उन्होने जबाब कुछ नही दिया।
यह तीनो गांव उन्ही की राज्य में आते थे,और राजपूतों की गद्दी होने के कारण उनकी जिम्मेदारी हुआ करती थी कि वे अपने जाति और बिरादरी के लिये हितों के काम करें। कुछ समय बाद उन्होने उन तीनों गावों के उन्ही लोगों को बुलाया,जिनके दरवाजे पर वे जाकर बैठे थे। उन लोगों ने आकर राजा साहब को देखा तो उनके पैरों के नीचे की जमीन खिसक गयी। कि यह आदमी तो उनके घर के दरवाजे पर बैठा थ,सभी अपने अपने मन में अपने अपने मन के अनुसार सोचने लगे कि उन्होने क्या क्या बर्ताव उनके साथ किया था। राजा साहब ने भरी सभा में पहले गांव वाले व्यक्ति को बुलाया और पूंछा कि वह अपने नाम के आगे सिंह कैसे लगाने लगा,उस व्यक्ति ने जबाब दिया कि उसके पूर्वज भी सिंह लगाया करते थे इसलिये उसने अपने नाम के आगे सिंह लगाना शुरु किया था। भाटों को बुलाकर उस गांव के इतिहास के बारे में पता लगाया गया,उस गांव की पुरानी नींव वास्तव में किसी राजपूत की ही थी,लेकिन राजपूत रानी के मरने के बाद किसी बेडिनी को घर में घर में बिठा लेने के कारण जो औलाद पैदा हुयी वह बाप के नाम का सिंह तो लगाने लगी लेकिन राजपूती बाना सही नही रख पायी। धीरे धीरे खून के अन्दर ठंडक आने लगी और राजपूती का खून खून को आकर्षित नही कर पाया। फ़लस्वरूप राजा को बिना किसी भोजन पानी के और मान मनुहार के वापस आना पडा,कारण राजपूती खून उन लोगों में होता तो वे अपने खून को पहिचान कर लगाव रखते। दूसरे गांव में राजा साहब गये थे,उस गांव के लोगों ने बिना किसी पूंछताछ के उनकी मान मनुहार की थी,उस गांव की राजपूती प्रथा जैसे पहले थी वैसी ही चली आ रही थी,इसलिये उन लोगों ने जैसा उनके पास था वैसा उनका सत्कार किया। तीसरे गांव में जहां राजा ने अपने को कोरी बताया था,वे लोग वास्तव में बने हुये राजपूत थे,और अन्य जाति का होने के कारण पहले ही जाति पांति के बारे में पूंछने लगे थे।
कहने का तात्पर्य है कि राजपूत केवल सिंह लगाने से नही बना जा सकता है,जो राजपूती खून को अपनी तरफ़ आकर्षित कर सकता है वही सच्चा राजपूत है,अगर राजपूत के घर में कोई बेडिनी शादी के बाद आ गयी है तो वह पता नही किस जाति के खून को घर में लाकर पालने पोषने के बाद सिंह तो लगा देगी लेकिन जो वास्तविक राजपूती खून है उसे कहां से लेकर आयेगी। और आगे चलकर जो सन्तान होगी वह अपने खून को भूलने लगेगी और दूसरे खूनों की तरफ़ आकर्षित होकर भटकने लगेगी।



source:kalgati.wikidot.com/whoru

राजपूतोँ का इतिहास


राजपूतोँ का इतिहास अत्यंत गौरवशाली रहा है। हिँदू धर्म के अनुसार राजपूतोँ का काम शासन चलाना होता है।कुछ राजपुतवन्श अपने को भगवान श्री राम के वन्शज बताते है।राजस्थान का अशिकन्श भाग ब्रिटिश काल मे राजपुताना के नाम से जाना जाता था।

हमारे देश का इतिहास आदिकाल से गौरवमय रहा है,क्षत्रिओं की आन बान शान की रक्षा केवल वीर पुरुषों ने ही नही की बल्कि हमारे देश की वीरांगनायें भी किसी से पीछे नही रहीं। आज से लगभग एक हजार साल पुरानी बात है,गुजरात में जयसिंह सिद्धराज नामक राजा राज्य करता था,जो सोलंकी राजा था,उसकी राजधानी पाटन थी,सोलंकी राजाओं ने लगभग तीन सौ साल गुजरात में शासन किया,सोलंकियों का यह युग गुजरात राज्य का स्वर्णयुग कहलाया। दुख की यह बात है,कि सिद्धराज अपुत्र था,वह अपने चचेरे भाई के नाती को बहुत प्यार करता था। लेकिन एक जैन मुनि हेमचन्द ने यह भविष्यवाणी की थी,कि राजा सिद्धराज जयसिंह के बाद यह नाती कुमारपाल इस राज्य का शासक बनेगा। जब यहबात राजा सिद्धराज जयसिंह को पता लगी तो वह कुमारपाल से घृणा करने लगा। और उसे मरवाने की विभिन्न युक्तियां प्रयोग मे लाने लगा। परन्तु क्मारपाल सोलंकी बनावटी भेष में अपनी जीवन रक्षा के लिये घूमता रहा। और अन्त में जैन मुनि की बात सत्य हुयी। कुमारपाल सोलंकी पचपन वर्ष की अवस्था में पाटन की गद्दी पर आसीन हुआ।
राजा कुमारपाल बहुत शक्तिशाली निकला,उसने अच्छे अच्छे राजाओं को धूल चटा दी,अपने बहनोई अणोंराज चौहान की भी जीभ काटने का आदेश दे दिया। लेकिन उसके गुरु ने उसकी रक्षा की। कुमारपालक जैन धर्म का पालक था,और अपने द्वारा मुनियों की रक्षा करता था। वह सोमनाथ का पुजारी भी था। राज्य के गुरु हेमचन्द थे,और महामन्त्री उदय मेहता थे,यह मानने वाली बात है कि जिस राज्य के गुरु जैन और मन्त्री जैन हों,वहां का जैन समुदाय सबसे अधिक फ़ायदा लेने वाला ही होगा।
राजाकुमारपाल तेजस्वी ढीठ व दूरदर्शी राजा था,उसने अपने प्राप्त राज्य को क्षीण नही होने दिया,राजा ने मेवाड चित्तौण को भी लूटा था,६५ साल की उम्र मे राजा कुमारपाल ने चित्तौड के राजा सिसौदिया से शादी के लिये लडकी मांगी थी,और सिसौदिया राजा ने अपनी कमजोरी के कारण लडकी देना मान भी लिया था। राजा ने यह भी शर्त मनवा ली थी कि वह खुद शादी करने नही जायेगा,बल्कि उसकी फ़ेंटा और कटारी ही शादी करने जायेगी। मेवाड के राजाओं ने भी यह बात मानली थी।
एक भांड फ़ेंटा और कटारी लेकर चित्तौण पहुंचा, राजकुमार सिसौदिनी से शादी होनी थी। राजकुमारी ने भी अपनी शर्त शादी के समय की कि वह शादी तो करेगी,लेकिन राजमहल में जाने से पहले जैन मुनि की चरण वंदना नही करेगी। उसने कहा कि वह एकलिंग जी को अपना इष्ट मानती है। उसके मां बाप ने यह हठ करने से मना किया लेकिन वह राजकुमारी नही मानी।
रानी ने कुमारपाल की कटारी और फ़ेंटा के साथ शादी की और उस भाट के साथ पाटन के लिये चल दी। मन्जिलें तय होती गयीं और रानी सिसौदिनी की सुहाग की पूरक फ़ेंटा कटारी भी साथ साथ चलती गयी। सुबह से शाम हुयी और शाम से सुबह हुयी इसी तरह से तीन सौ मील का सफ़र तय हुआ और रानी पाटन के किले के सामने पहुंच गयी। राजा कुमारपाल के पास सन्देशा गया कि उसकी शादी हो कर आयी है और रानी राजमहल के दरवाजे पर है,उसका इन्तजार कर रही है। राजा कुमारपाल ने आदेश दिया कि रानी को पहले जैन मुनि की चरण वंदना को ले जाया जाये,यह सन्देशा रानी सिसौदिनी के पास भी पहुंचा,रानी ने भाट को जो रानी की शादी के लिये फ़ेंटा कटारी लेकर गया था,से सन्देशा राजा कुमारपाल को पहुंचाया कि वह एक लिंग जी की सेवा करती है और उन्ही को अपना इष्ट मानती है एक इष्ट के मानते हुये वह किसी प्रकार से भी अन्य धर्म के इष्ट को नही मान सकती है। यही शर्त उसने सबसे पहले भाट से भी रखी थी। राजा कुमारपाल ने भाट को यह कहते हुये नकार दिया कि राजा के आदेश के आगे भाट की क्या बिसात है,रानी को जैन मुनि को के पास चरण वंदना के लिये जाना ही पडेगा। रानी के पास आदेश आया और वह अपने वचन के अनुसार कहने लगी कि उसे फ़ांसी दे दी जावे,उसका सिर काट लिया जाये उसे जहर दे दिया जाये,लेकिन वह जैन मुनि के पास चरणवंदना के लिये नही जायेगी। भाट ने भी रानी का साथ दिया और रानी का वचन राजा कुमारपाल के छोटे भाई अजयपाल को बताया,राजा अजयपाल ने रानी की सहायता के लिये एक सौ सैनिकों की टुकडी लेकर और अपने बेटे को रानी को चित्तौड तक पहुंचाने के लिये भेजा। राजा कुमारपाल को पता लगा तो उसने अपनी फ़ौज को रानी को वापस करने के लिये और गद्दारों को मारने के लिये भेजा,राजा अजयपाल की टुकडी को और उसके बेटे सहित रानी को कुमारपाल की फ़ौज ने थोडी ही दूर पर घेर लिया,रानी ने देखा कि अजयपाल की वह छोटी सी टुकडी और उसका पुत्र राजा कुमारपाल की सेना से मारा जायेगा,वह जाकर दोनो सेनाओं के बीच में खडी हो गयी और कहा कि उसके इष्ट के आगे कोई खून खराबा नही करे,वह एकलिंग जी को मानती है और उसे कोई उनकी आराधना करने से मना नही कर सकता है,अगर दोनो सेनायें उसके इष्ट के लिये खून खराबा करेंगी तो वह अपनी जान दे देगी,राजा कुमारपाल और राजा अजयपाल कापुत्र यह सब देख रहा था,रानी सिसौदिनी ने अपनी तलवार को अपनी म्यान से निकाला और चूमा तथा अपने कंठ पर घुमा ली,रानी का सिर विहीन धड जमीन पर गिरपडा। कुमारपाल और अजयपाल की सेना देखती रह गयी,रानी का शव पाटन लाया गया। रानी के शव को चन्दन की चिता पर लिटाया गया,और उसी भाट ने जो रानी को फ़ेंटा कटारी लेकर शादी करने गया था ने रानी की चिता को अग्नि दी। अग्नि देकर वह भाट जय एक लिंग कहते हुये उसी चिता में कूद गया,उसके कूदने के साथ दो सौ भाट जय एकलिंग कहते हुये चिता में कूद गये,और अपनी अपनी आहुति आन बान और शान के लिये दे दी। आज भी गुजरात में राजा कुमारपाल सोलंकी का नाम घृणा और नफ़रत से लिया जाता है तथा रानी सिसौदिनी का किस्सा बडी ही आन बान शान से लिया जाता है। हर साल रानी सिसौदिनी के नाम से मेला भरता है,और अपनी पारिवारिक मर्यादा की रक्षा के लिये आज भी वहां पर भाट और राजपूतों का समागम होता है। यह आन बान शान की कहानी भी अपने मे एक है लेकिन समय के झकोरों ने इसे पता नही कहां विलुप्त कर दिया है.

राजपूतों की उत्पत्ति


इन राजपूत वंशों की उत्पत्ति के विषय में विद्धानों के दो मत प्रचलित हैं- एक का मानना है कि राजपूतों की उत्पत्ति विदेशी है, जबकि दूसरे का मानना है कि, राजपूतों की उत्पत्ति भारतीय है। 12वीं शताब्दी के बाद् के उत्तर भारत के इतिहास को टोड ने 'राजपूत काल' भी कहा है। कुछ इतिहासकारों ने प्राचीन काल एवं मध्य काल को 'संधि काल' भी कहा है। इस काल के महत्वपूर्ण राजपूत वंशों में राष्ट्रकूट वंश, दहिया वन्श, डांगी वंश, चालुक्य वंश, चौहान वंश, चंदेल वंश, परमार वंश एवं गहड़वाल वंश आदि आते हैं।

विदेशी उत्पत्ति के समर्थकों में महत्वपूर्ण स्थान 'कर्नल जेम्स टॉड' का है। वे राजपूतों को विदेशी सीथियन जाति की सन्तान मानते हैं। तर्क के समर्थन में टॉड ने दोनों जातियों (राजपूत एवं सीथियन) की सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति की समानता की बात कही है। उनके अनुसार दोनों में रहन-सहन, वेश-भूषा की समानता, मांसाहार का प्रचलन, रथ के द्वारा युद्ध को संचालित करना, याज्ञिक अनुष्ठानों का प्रचलन, अस्त्र-शस्त्र की पूजा का प्रचलन आदि से यह प्रतीत होता है कि राजपूत सीथियन के ही वंशज थे।
विलियम क्रुक ने 'कर्नल जेम्स टॉड' के मत का समर्थन किया है। 'वी.ए. स्मिथ' के अनुसार शक तथा कुषाण जैसी विदेशी जातियां भारत आकर यहां के समाज में पूर्णतः घुल-मिल गयीं। इन देशी एवं विदेशी जातियों के मिश्रण से ही राजपूतों की उत्पत्ति हुई।
भारतीय इतिहासकारों में 'ईश्वरी प्रसाद' एवं 'डी.आर. भंडारकर' ने भारतीय समाज में विदेशी मूल के लोगों के सम्मिलित होने को ही राजपूतों की उत्पत्ति का कारण माना है। भण्डारकर, कनिंघम आदि ने इन्हे विदेशी बताया है। । इन तमाम विद्वानों के तर्को के आधार पर निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि, यद्यपि राजपूत क्षत्रियों के वंशज थे, फिर भी उनमें विदेशी रक्त का मिश्रण अवश्य था। अतः वे न तो पूर्णतः विदेशी थे, न तो पूर्णत भारतीय।

राजपूत प्रेम कहानी

गुजरात का हमीर जाडेजा अपनी ससुराल अमरकोट (सिंध) आया हुआ था | उसका विवाह अमरकोट के राणा वीसलदे सोढा की पुत्री से हुआ था | राणा वीसलदे का पुत्र महिंद्रा व हमीर हमउम्र थे इसलिए दोनों में खूब जमती थी साथ खेलते,खाते,पीते,शिकार करते और मौज करते | एक दिन दोनों शिकार करते समय एक हिरण का पीछा करते करते दूर लोद्र्वा राज्य की काक नदी के पास आ पहुंचे उनका शिकार हिरण अपनी जान बचाने काक नदी में कूद गया, दोनों ने यह सोच कि बेचारे हिरण ने जल में जल शरण ली है अब उसे क्या मारना | शिकार छोड़ जैसे दोनों ने इधर उधर नजर दौड़ाई तो नदी के उस पार उन्हें एक सुन्दर बगीचा व उसमे बनी एक दुमंजिली झरोखेदार मेड़ी दिखाई दी | इस सुनसान स्थान मे इतना सुहावना स्थान देख दोनों की तबियत प्रसन्न हो गयी | अपने घोड़े नदी मे उतार दोनों ने नदी पार कर बागीचे मे प्रवेश किया इस वीरानी जगह पर इतना सुन्दर बाग़ देख दोनों आश्चर्यचकित थे कि अपने पडौस मे ऐसा नखलिस्तान ! क्योंकि अभी तक तो दोनों ने ऐसे नखलिस्तानों के बारे मे सौदागरों से ही चर्चाएँ सुनी थी |
उनकी आवाजें सुन मेड़ी मे बैठी मूमल ने झरोखे से निचे झांक कर देखा तो उसे गर्दन पर लटके लम्बे काले बाल,भौंहों तक तनी हुई मूंछे,चौड़ी छाती और मांसल भुजाओं वाले दो खुबसूरत नौजवान अपना पसीना सुखाते दिखाई दिए | मूमल ने तुरंत अपनी दासी को बुलाकर कर कहा- नीचे जा, नौकरों से कह इन सरदारों के घोड़े पकड़े व इनके रहने खाने का इंतजाम करे, दोनों किसी अच्छे राजपूत घर के लगते है शायद रास्ता भूल गए है इनकी अच्छी खातिर करा |
मूमल के आदेश से नौकरों ने दोनों के आराम के लिए व्यवस्था की,उन्हें भोजन कराया | तभी मूमल की एक सहेली ने आकर दोनों का परिचय पूछा | हमीर ने अपना व महिंद्रा का परिचय दिया और पूछा कि तुम किसकी सहेली हो ? ये सुन्दर बाग़ व झरोखेदार मेड़ी किसकी की है ? और हम किस सुलक्षीणी के मेहमान है ?
मूमल की सहेली कहने लगी- "क्या आपने मूमल का नाम नहीं सुना ? उसकी चर्चा नहीं सुनी ? मूमल जो जगप्यारी मूमल के नाम से पुरे माढ़ (जैसलमेर) देश मे प्रख्यात है | जिसके रूप से यह सारा प्रदेश महक रहा है जिसके गुणों का बखान यह काक नदी कल-कल कर गा रही है | यह झरोखेदार मेड़ी और सुन्दर बाग़ उसी मूमल का है जो अपनी सहेलियों के साथ यहाँ अकेली ही रहती है |" कह कर सहेली चली गयी |
तभी भोजन का जूंठा थाल उठाने आया नाई बताने लगा -" सरदारों आप मूमल के बारे मे क्या पूछते हो | उसके रूप और गुणों का तो कोई पार ही नहीं | वह शीशे मे अपना रूप देखती है तो शीशा टूट जाता है | श्रंगार कर बाग़ मे आती है चाँद शरमाकर बादलों मे छिप जाता है | उसकी मेड़ी की दीवारों पर कपूर और कस्तूरी का लेप किया हुआ है,रोज ओख्लियों मे कस्तूरी कुटी जाती है,मन-मन दूध से वह रोज स्नान करती है,शरीर पर चन्दन का लेप कराती है | मूमल तो इस दुनिया से अलग है भगवान् ने वैसी दूसरी नहीं बनाई |"
कहते कहते नाई बताने लगा-" अखन कुँवारी मूमल,पुरुषों से दूर अपने ही राग रंग मे डूबी रहती है | एक से एक खुबसूरत,बहादुर,गुणी,धनवान,जवान,राजा,राजकुमार मूमल से शादी करने आये पर मूमल ने तो उनकी और देखा तक नहीं उसे कोई भी पसंद नहीं आया | मूमल ने प्रण ले रखा है कि वह विवाह उसी से करेगी जो उसका दिल जीत लेगा,नहीं तो पूरी उम्र कुंवारी ही रहेगी |"
कुछ ही देर मे मूमल की सहेली ने आकर कहा कि आप दोनों मे से एक को मूमल ने बुलाया है |
हमीर ने अपने साले महेन्द्रा को जाने के लिए कहा पर महिन्द्रा ने हमीर से कहा- पहले आप |
हमीर को मेड़ी के पास छोड़ सहेली ने कहा -" आप भीतर पधारें ! मूमल आपका इंताजर कर रही है |
हमीर जैसे ही आगे चौक मे पहुंचा तो देखा आगे उसका रास्ता रोके एक शेर बैठा है और दूसरी और देखा तो उसे एक अजगर रास्ते पर बैठा दिखाई दिया | हमीर ने सोचा मूमल कोई डायन है और नखलिस्तान रचकर पुरुषों को अपने जाल मे फंसा मार देती होगी | वह तुरंत उल्टे पाँव वापस हो चौक से निकल आया |
हमीर व महिंद्रा आपसे बात करते तब तक मूमल की सहेली आ गयी और महिंद्रा से कहने लगी आप आईये मूमल आपका इंतजार कर रही है |
महिंद्रा ने अपना अंगरखा पहन हाथ मे भाला ले सहेली के पीछे पीछे चलना शुरू किया | सहेली ने उसे भी हमीर की तरह चौक मे छोड़ दिया,महिंद्रा को भी चौक मे रास्ता रोके शेर बैठा नजर आया उसने तुरंत अपना भाला लिया और शेर पर पूरे वेग से प्रहार कर दिया | शेर जमीन पर लुढ़क गया और उसकी चमड़ी मे भरा भूसा बाहर निकल आया | महिंद्रा यह देख मन ही मन मुस्कराया कि मूमल उसकी परीक्षा ले रही है | तभी उसे आगे अजगर बैठा दिखाई दिया महिंद्रा ने भूसे से भरे उस अजगर के भी अपनी तलवार के प्रहार से टुकड़े टुकड़े कर दिए | अगले चौक मे महिंद्रा को पानी भरा नजर आया,महिंद्रा ने पानी की गहराई नापने हेतु जैसे पानी मे भाला डाला तो ठक की आवाज आई महिंद्रा समझ गया कि जिसे वह पानी समझ रहा है वह कांच का फर्श है |
कांच का फर्श पार कर सीढियाँ चढ़कर महिंद्रा मूमल की मेड़ी मे प्रविष्ट हुआ आगे मूमल खड़ी थी,जिसे देखते ही महिंद्रा ठिठक गया | मूमल ऐसे लग रही थी जैसे काले बादल मे बिजली चमकी हो, एड़ी तक लम्बे काले बाल मानों काली नागिन सिर से जमीन पर लोट रही हों| चम्पे की डाल जैसी कलाइयाँ,बड़ी बड़ी सुन्दर आँखे, ऐसे लग रही थी जैसे मद भरे प्याले हो,तपे हुए कुंदन जैसा बदन का रंग,वक्ष जैसे किसी सांचे मे ढाले गए हों,पेट जैसे पीपल का पत्ता,अंग-अंग जैसे उफन रहा हो |
मूमल का यह रूप देखकर महिंद्रा के मुंह से अनायास ही निकल पड़ा-" न किसी मंदिर मे ऐसी मूर्ति होगी और न किसी राजा के रणवास मे ऐसा रूप होगा |" महिंद्रा तो मूमल को ठगा सा देखता ही रहा | उसकी नजरें मूमल के चेहरे को एकटक देखते जा रही थी दूसरी और मूमल मन में कह रही थी - क्या तेज है इस नौजवान के चेहरे पर और नयन तो नयन क्या खंजर है | दोनों की नजरें आपस में ऐसे गड़ी कि हटने का नाम ही नहीं ले रही थी |
आखिर मूमल ने नजरे नीचे कर महिंद्रा का स्वागत किया दोनों ने खूब बाते की ,बातों ही बातों में दोनों एक दुसरे को कब दिल दे बैठे पता ही न चला और न ही पता चला कि कब रात ख़त्म हो गयी और कब सुबह का सूरज निकल आया |
उधर हमीर को महेन्द्रा के साथ कोई अनहोनी ना हो जाये सोच कर नींद ही नहीं आई | सुबह होते ही उसने नाई के साथ संदेशा भेज महिंद्रा को बुलवाया और चलने को कहा | महिंद्रा का मूमल को छोड़कर वापस चलने का मन तो नहीं था पर मूमल से यह कह- "मैं फिर आवुंगा मूमल, बार बार आकर तुमसे मिलूँगा |"
दोनों वहां से चल दिए हमीर गुजरात अपने वतन रवाना हुआ और महिंद्रा अपने राज्य अमरकोट |
मूमल से वापस आकर मिलने का वायदा कर महिन्द्रा अमरकोट के लिए रवाना तो हो गया पर पूरे रास्ते उसे मूमल के अलावा कुछ और दिखाई ही नहीं दे रहा था वह तो सिर्फ यही गुनगुनाता चला जा रहा था -




म्हारी माढेची ए मूमल , हाले नी अमराणे देस |
" मेरी मांढ देश की मूमल, आओ मेरे साथ अमरकोट चलो |"

महेन्द्रा अमरकोट पहुँच वहां उसका दिन तो किसी तरह कट जाता पर शाम होते ही उसे मूमल ही मूमल नजर आने लगती वह जितना अपने मन को समझाने की कोशिश करता उतनी ही मूमल की यादें और बढ़ जाती | वह तो यही सोचता कि कैसे लोद्र्वे पहुँच कर मूमल से मिला जाय | आखिर उसे सुझा कि अपने ऊँटो के टोले में एसा ऊंट खोजा जाय जो रातों रात लोद्र्वे जाकर सुबह होते ही वापस अमरकोट आ सके |
उसने अपने रायका रामू (ऊंट चराने वाले) को बुलाकर पूछा तो रामू रायका ने बताया कि उसके टोले में एक चीतल नाम का ऊंट है जो बहुत तेज दौड़ता है और वह उसे आसानी से रात को लोद्र्वे ले जाकर वापस सुबह होने से पहले ला सकता है | फिर क्या था रामू रायका रोज शाम को चीतल ऊंट को सजाकर महेन्द्रा के पास ले आता और महेन्द्रा चीतल पर सवार हो एड लगा लोद्र्वा मूमल के पास जा पहुँचता | तीसरे प्रहार महेन्द्रा फिर चीतल पर चढ़ता और सुबह होने से पहले अमरकोट आ पहुँचता |
महेन्द्रा विवाहित था उसके सात पत्नियाँ थी | मूमल के पास से वापस आने पर वह सबसे छोटी पत्नी के पास आकर सो जाता इस तरह कोई सात आठ महीनों तक उसकी यही दिनचर्या चलती रही इन महीनों में वह बाकी पत्नियों से तो मिला तक नहीं इसलिए वे सभी सबसे छोटी बहु से ईर्ष्या करनी लगी और एक दिन जाकर इस बात पर उन्होंने अपनी सास से जाकर शिकायत की | सास ने छोटी बहु को समझाया कि बाकी पत्नियों को भी महिंद्रा ब्याह कर लाया है उनका भी उस पर हक़ बनता है इसलिए महिंद्रा को उनके पास जाने से मत रोका कर | तब महिंद्रा की छोटी पत्नी ने अपनी सास को बताया कि महिंद्रा तो उसके पास रोज सुबह होने से पहले आता है और आते ही सो जाता है उसे भी उससे बात किये कोई सात आठ महीने हो गए | वह कब कहाँ जाते है,कैसे जाते है,क्यों जाते है मुझे कुछ भी मालूम नहीं |
छोटी बहु की बाते सुन महिंद्रा की माँ को शक हुवा और उसने यह बात अपनी पति राणा वीसलदे को बताई | चतुर वीसलदे ने छोटी बहु से पूछा कि जब महिंद्रा आता है तो उसमे क्या कुछ ख़ास नजर आता है | छोटी बहु ने बताया कि जब रात के आखिरी प्रहर महिंद्रा आता है तो उसके बाल गीले होते है जिनमे से पानी टपक रहा होता है |
चतुर वीसलदे ने बहु को हिदायत दी कि आज उसके बालों के नीचे कटोरा रख उसके भीगे बालों से टपके पानी को इक्कठा कर मेरे पास लाना | बहु ने यही किया और कटोरे में एकत्र पानी वीसलदे के सामने हाजिर किया | वीसलदे ने पानी चख कर कहा- " यह तो काक नदी का पानी है इसका मतलब महिंद्रा जरुर मूमल की मेंड़ी में उसके पास जाता होगा |
महिंद्रा की सातों पत्नियों को तो मूमल का नाम सुनकर जैसे आग लग गयी | उन्होंने आपस में सलाह कर ये पता लगाया कि महेन्द्रा वहां जाता कैसे है | जब उन्हें पता चला कि महेन्द्रा चीतल नाम के ऊंट पर सवार हो मूमल के पास जाता है तो दुसरे दिन उन्होंने चीतल ऊंट के पैर तुड़वा दिए ताकि उसके बिना महिंद्रा मूमल के पास ना जाने पाए |
रात होते ही जब रामू राइका चीतल लेकर नहीं आया तो महिंद्रा उसके घर गया वहां उसे पता चला कि चीतल के तो उसकी पत्नियों ने पैर तुड़वा दिए है तब उसने रामू से चीतल जैसा दूसरा ऊंट माँगा |
रामू ने कहा -" उसके टोले में एक तेज दौड़ने वाली एक टोरडी (छोटी ऊंटनी) है तो सही पर कम उम्र होने के चलते वह चीतल जैसी सुलझी हुई व अनुभवी नहीं है | आप उसे ले जाये पर ध्यान रहे उसके आगे चाबुक ऊँचा ना करे,चाबुक ऊँचा करते ही वह चमक जाती है और जिधर उसका मुंह होता उधर ही दौड़ना शुरू कर देती है तब उसे रोकना बहुत मुश्किल है |
महिंद्रा टोरडी पर सवार हो लोद्र्वा के लिए रवाना होने लगा पर मूमल से मिलने की बैचेनी के चलते वह भूल गया कि चाबुक ऊँचा नहीं करना है और चाबुक ऊँचा करते ही टोरडी ने एड लगायी और सरपट भागने लगी अँधेरी रात में महिंद्रा को रास्ता भी नहीं पता चला कि वह कहाँ पहुँच गया थोड़ी देर में महिंद्रा को एक झोंपड़े में दिया जलता नजर आया वहां जाकर उसने उस क्षेत्र के बारे में पूछा तो पता चला कि वह लोद्र्वा की जगह बाढ़मेर पहुँच चूका है | रास्ता पूछ जब महिंद्रा लोद्र्वा पहुंचा तब तक रात का तीसरा प्रहर बीत चूका था | मूमल उसका इंतजार कर सो चुकी थी उसकी मेंड़ी में दिया जल रहा था | उस दिन मूमल की बहन सुमल भी मेंड़ी में आई थी दोनों की बाते करते करते आँख लग गयी थी | सहेलियों के साथ दोनों बहनों ने देर रात तक खेल खेले थे सुमल ने खेल में पुरुषों के कपडे पहन पुरुष का अभिनय किया था | और वह बातें करती करती पुरुष के कपड़ों में ही मूमल के पलंग पर उसके साथ सो गयी |
महिंद्रा मूमल की मेंड़ी पहुंचा सीढियाँ चढ़ जैसे ही मूमल के कक्ष में घुसा और देखा कि मूमल तो किसी पुरुष के साथ सो रही है | यह दृश्य देखते ही महिंद्रा को तो लगा जैसे उसे एक साथ हजारों बिच्छुओं ने काट खाया हो | उसके हाथ में पकड़ा चाबुक वही गिर पड़ा और वह जिन पैरों से आया था उन्ही से चुपचाप बिना किसी को कुछ कहे वापस अमरकोट लौट आया | वह मन ही मन सोचता रहा कि जिस मूमल के लिए मैं प्राण तक न्योछावर करने के लिए तैयार था वह मूमल ऐसी निकली | जिसके लिए मैं कोसों दूर से आया हूँ वह पर पुरुष के साथ सोयी मिलेगी | धिक्कार है ऐसी औरत पर |
सुबह आँख खुलते ही मूमल की नजर जैसे महिंद्रा के हाथ से छूटे चाबुक पर पड़ी वह समझ गयी कि महेन्द्रा आया था पर शायद किसी बात से नाराज होकर चला गया |उसके दिमाग में कई कल्पनाएँ आती रही |
कई दिनों तक मूमल महिंद्रा का इंतजार करती रही कि वो आएगा और जब आएगा तो सारी गलतफहमियां दूर हो जाएँगी | पर महिंद्रा नहीं आया | मूमल उसके वियोग में फीकी पड़ गई उसने श्रंगार करना छोड़ दिया |खना पीना भी छोड़ दिया उसकी कंचन जैसी काया काली पड़ने लगी | उसने महिंद्रा को कई चिट्ठियां लिखी पर महिंद्रा की पत्नियों ने वह चिट्ठियां महिंद्रा तक पहुँचने ही नहीं दी | आखिर मूमल ने एक ढोली (गायक) को बुला महेन्द्रा के पास भेजा | पर उसे भी महिंद्रा से नहीं मिलने दिया गया | पर वह किसी तरह महेन्द्रा के महल के पास पहुँचने में कामयाब हो गया और रात पड़ते ही उस ढोली ने मांढ राग में गाना शुरू किया -
" तुम्हारे बिना,सोढा राण, यह धरती धुंधली
तेरी मूमल राणी है उदास
मूमल के बुलावे पर
असल प्रियतम महेन्द्रा अब तो घर आव |"

ढोली के द्वारा गयी मांढ सुनकर भी महिंद्रा का दिल नहीं पसीजा और उसने ढोली को कहला भेजा कि -" मूमल से कह देना न तो मैं रूप का लोभी हूँ और न ही वासना का कीड़ा | मैंने अपनी आँखों से उस रात उसका चरित्र देख लिया है जिसके साथ उसकी घनिष्ठता है उसी के साथ रहे | मेरा अब उससे कोई सम्बन्ध नहीं |"
ढोली द्वारा सारी बात सुनकर मूमल के पैरों तले की जमीन ही खिसक गई अब उसे समझ आया कि महेन्द्रा क्यों नहीं आया | मूमल ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे एसा कलंक लगेगा |
उसने तुरंत अमरकोट जाने के लिए रथ तैयार करवाया ताकि अमरकोट जाकर महिंद्रा से मिल उसका बहम दूर किया जा सके कि वह कलंकिनी नहीं है और उसके सिवाय उसका कोई नहीं |
अमरकोट में मूमल के आने व मिलने का आग्रह पाकर महिंद्रा महिंद्रा ने सोचा,शायद मूमल पवित्र है ,लगता है मुझे ही कोई ग़लतफ़हमी हो गई | और उसने मूमल को सन्देश भिजवाया कि वह उससे सुबह मिलने आएगा | मूमल को इस सन्देश से आशा बंधी |
रात को महेन्द्रा ने सोचा कि -देखें,मूमल मुझसे कितना प्यार करती है ?"'
सो सुबह उसने अपने नौकर के सिखाकर मूमल के डेरे पर भेजा | नौकर रोता-पीटता मूमल के डेरे पर पहुंचा और कहने लगा कि -"महिंद्रा जी को रात में काले नाग ने डस लिया जिससे उनकी मृत्यु हो गयी |
नौकर के मुंह से इतना सुनते ही मूमल पछाड़ खाकर धरती पर गिर पड़ी और पड़ते ही महिंद्रा के वियोग में उसके प्राण पखेरू उड़ गए |
महेन्द्रा को जब मूमल की मृत्यु का समाचार मिला तो वह सुनकर उसी वक्त पागल हो गया और सारी उम्र " हाय म्हारी प्यारी मूमल,म्हारी प्यारी मूमल" कहता फिरता रहा।


Thursday, March 1, 2012

तलवार के साथ विवाह

राजस्थान के राजपूत शासन काल में राजपूत हमेशा युद्धरत रहते थे कभी बाहरी आक्रमण तो कभी अपना अपना राज्य बढ़ाने के लिए राजाओं की आपसी लड़ाईयां|इन लड़ाइयों के चलते राजपूत योद्धाओं को कभी कभी अपनी शादी तक के लिए समय तक नहीं मिल पाता था|कई बार ऐसे भी अवसर आते थे कि शादी की रस्म को बीच में ही छोड़कर राजपूत योद्धाओं को युद्ध में जाना पड़ता था|



राजस्थान के प्रसिद्ध लोक देवता पाबूजी राठौड अपनी शादी में फेरों की रस्म पूरी ही नहीं कर पाए थे कि एक वृद्धा के पशुधन को लुटेरों से बचाने के लिए फेरों की रस्म बीच में ही छोड़ उन्हें रण में जाना पड़ा और वे उस वृद्धा के पशुधन की रक्षा करते हुए युद्धभूमि में शहीद हो गए|
इसी तरह मेवाड़ के सलूम्बर ठिकाने के रावत रत्नसिंह चुंडावत भी अपनी शादी के बाद ठीक से अपनी पत्नी रानी हाड़ी से मिल भी नहीं पाए कि उन्हें औरंगजेब के खिलाफ युद्ध में जाना पड़ गया और रानी ने ये सोच कर कि कहीं उसके पति पत्नीमोह में युद्ध से विमुख न हो जाए या वीरता प्रदर्शित नही कर पाए इसी आशंका के चलते उस वीर रानी ने अपना शीश काट कर ही निशानी के तौर पर भेज दिया ताकि उसका पति अब उसका मोह त्याग निर्भय होकर अपनी मातृभूमि के लिए युद्ध कर सके | और रावत रतन सिंह चुण्डावत ने अपनी पत्नी का कटा शीश गले में लटका औरंगजेब की सेना के साथ भयंकर युद्ध किया और वीरता पूर्वक लड़ते हुए अपनी मातृभूमि के लिए शहीद हो गए|

इस तरह राजपूत योद्धाओं को अक्सर अनवरत चलने वाले युद्धों के कारण अपनी शादी के लिए जाने तक का समय नहीं मिल पाता था ऐसे कई अवसर आते थे कि किसी योद्धा की शादी तय हो जाती थी और ठीक शादी से पहले उसे किसी युद्ध में चले जाना पड़ता था ऐसी परिस्थितियों में उस काल में राजपूत समुदाय में खांडा विवाह परम्परा की शुरुआत हुई इस परम्परा के अनुसार दुल्हे के शादी के समय उपलब्ध नहीं होने की स्थिति में उसकी तलवार (खांडा) दुल्हे की जगह बारात के साथ भेज दी जाती थी और उसी तलवार को दुल्हे की जगह रखकर शादी के सभी रस्मों रिवाज पुरे कर दिए जाते थे|

पर अब राजपूत समुदाय में खांडा विवाह परम्परा बिल्कुल समाप्त हो चुकी है हाँ बचपन में मैंने खांडा विवाह तो नहीं पर कुछ सगाई समारोह जरुर देखें है जहाँ लड़का उस समय उपलब्ध नहीं था तो सगाई की रस्म तलवार रखकर पूरी कर दी गयी थी| मेरे एक चचेरे भाई की सगाई भी उसकी अनुपस्थिति में इसी तरह तलवार रखकर कर दी गयी थी अब भी हमारी भाभी और हमारे चचेरे भाई के बीच इस बात पर कई बार मजाक हो जाया करती है|

पर इस प्रथा को लेकर इतिहास में एक बार एक ऐसी दुखद घटना भी घट चुकी है जिसके चलते बाड़मेर की जनता को बहुत उत्पीडन सहना पड़ा| राजस्थान के प्रसिद्ध प्रथम इतिहासकार और तत्कालीन जोधपुर रियासत के प्रधान मुंहनोत नैंणसीं को तीसरे विवाह के लिए बाड़मेर राज्य के कामदार कमा ने अपनी पुत्री के विवाह का नारियल भेजा था (उस जमाने में सगाई के लिए नारियल भेजा जाता था जिसे स्वीकार कर लेते ही सगाई की रस्म पूरी हो जाया करती थी) पर जोधपुर राज्य के प्रशासनिक कार्यों में अत्यधिक व्यस्त होने के कारण नैंणसीं खुद विवाह के लिए नहीं जा पाए और प्रचलित परम्परा के अनुसार उन्होंने बारात के साथ अपनी तलवार भेजकर खांडा विवाह करने का निश्चय किया| पर दुल्हन के पिता कमा ने इसे अपमान समझा और अपनी कन्या को नहीं भेजा बल्कि कन्या के बदले मूसल भेज दिया जिससे जोधपुर का वह शक्तिशाली प्रशासक व सेनापति नैंणसीं अत्यधिक क्रोधित हुआ और उसने इसे अपना अपमान समझ उसका बदला लेने के लिए बाड़मेर पर ससैन्य चढाई कर आक्रमण कर दिया उसने पुरे बाड़मेर नगर को तहस नहस कर खूब लूटपाट की और नगर के मुख्य द्वार के दरवाजे वहां से हटाकर जालौर दुर्ग में लगवा दिए|इस प्रकार इस खांडा विवाह परम्परा के चलते बाड़मेर की तत्कालीन प्रजा को बहुत उत्पीडन सहना पड़ा|

चूँकि नैंणसीं राजपूत नहीं ओसवाल महाजन (जैन)था अत:उसके द्वारा खांडा विवाह के लिए तलवार भेजने की इस घटना से साफ जाहिर है कि ये परम्परा सिर्फ राजपूत जाति तक ही सिमित नहीं थी बल्कि राजस्थान में उस समय की अन्य जातियों में भी इस प्रथा का चलन था|

साभार:रत्तन सिंघ शेखावत (www.gyandarpan.com)

 
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